Bhaktamar Stotra PDF | भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत)पुस्तक हिंदी पीडीएफ

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भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत) – एक अद्वितीय स्तोत्र की महिमा | Bhaktamar Stotra PDF

भक्तामर स्तोत्र जैन धर्म का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्राचीन स्तोत्र है, जिसे आचार्य मानतुंग ने भगवान आदिनाथ की स्तुति में रचा था। भगवान आदिनाथ, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर, को समर्पित यह स्तोत्र न केवल धार्मिक महत्त्व रखता है, बल्कि आध्यात्मिक शांति और मानसिक संतुलन प्राप्त करने का मार्ग भी दिखाता है। इसे जैन धर्म के अनुयायियों के साथ-साथ अन्य धर्मों में भी सम्मानपूर्वक पढ़ा और सुना जाता है।

भक्तामर स्तोत्र का महत्व | Bhaktamar Stotra PDF Importance

भक्तामर स्तोत्र का संस्कृत भाषा में लिखा जाना इसकी साहित्यिक समृद्धि को दर्शाता है। इसका नाम “भक्तामर” ही यह दर्शाता है कि यह भक्तों का अमर स्त्रोत है। भगवान आदिनाथ की महिमा का गुणगान करते हुए, यह स्तोत्र बताता है कि किस प्रकार व्यक्ति सच्ची भक्ति और समर्पण के माध्यम से सभी सांसारिक परेशानियों से मुक्ति पा सकता है।

यदि आप Bhaktamar Stotra PDF की खोज कर रहे हैं, तो इसका अध्ययन आपको धार्मिक और आध्यात्मिक लाभ प्रदान कर सकता है। इसमें प्रत्येक श्लोक भगवान आदिनाथ की स्तुति करते हुए उनकी शक्ति और अनुकंपा का वर्णन करता है, जो सभी बाधाओं और दुखों को दूर करने की क्षमता रखता है।

भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों का गहरा अर्थ | Bhaktamar Stotra Shlokas Meaning

भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक में भगवान आदिनाथ की स्तुति और भक्ति का स्वरुप देखा जा सकता है। प्रत्येक श्लोक जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति दिलाने का मार्ग प्रशस्त करता है। उदाहरण के लिए, पहला श्लोक जीवन के पापों से मुक्ति और भगवान के चरणों में शांति प्राप्त करने का मार्ग बताता है:

श्लोक 1:

भक्तामर – प्रणत – मौलि – मणि -प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित – पाप – तमो – वितानम्।
सम्यक् -प्रणम्य जिन – पाद – युगं युगादा-
वालम्बनं भव – जले पततां जनानाम्।। 1।।

इस श्लोक में भगवान आदिनाथ की महिमा गाते हुए कहा गया है कि उनके चरणों में प्रणाम करने से सभी पापों का नाश हो जाता है और भक्त भवसागर से पार हो जाते हैं। यह श्लोक भक्ति की शक्ति और भगवान की कृपा का अद्वितीय उदाहरण है।

भक्तामर स्तोत्र (संस्कृत) | BHAKTAMAR STOTRA Lyrics ( SANSKRIT )

श्री आदिनाथाय नमः

भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणा

मुद्योतकं दलितपापतमोवितानम्।

सम्यक्प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा

वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्।। 1

: संस्तुत: सकलवाङ् मयतत्त्वबोधा

दुद्भूतबुद्धिपटुभि: सुरलोकनाथै:

स्तोत्रैर्जगत्त्रितयचित्तहरैरुदारै:,

स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2

बुद्ध्या विनापि विबुधार्चितपादपीठ!

स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम्।

बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब

मन्य: इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् 3

वक्तुं गुणान्गुणसमुद्र ! शशाङ्ककान्तान्,

कस्ते क्षम: सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या

कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्रं ,

को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्॥ 4

सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश!

कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्त:

प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्

नाभ्येति किं निजशिशो: परिपालनार्थम्॥ 5

अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम,

त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्

यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,

तच्चाम्रचारुकलिकानिकरैकहेतु: 6

त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसन्निबद्धं,

पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्

आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु,

सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम्॥ 7

मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद, –

मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात्

चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु,

मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिन्दु: 8

आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं,

त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति

दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,

पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि 9

नात्यद्भुतं भुवनभूषण ! भूूतनाथ!

भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्त:

तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा

भूत्याश्रितं इह नात्मसमं करोति 10

दृष्ट्वा भवन्त मनिमेषविलोकनीयं,

नान्यत्रतोषमुपयाति जनस्य चक्षु:

पीत्वा पय: शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धो:,

क्षारं जलं जलनिधेरसितुं इच्छेत्? 11

यै: शान्तरागरुचिभि: परमाणुभिस्त्वं,

निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत !

तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,

यत्ते समानमपरं हि रूपमस्ति॥ 12

वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि,

नि:शेषनिर्जितजगत्त्रितयोपमानम्

बिम्बं कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य,

यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम्॥13

सम्पूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलाप

शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति।

ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेकं,

कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम्॥ 14

चित्रंकिमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभिर्

नीतं मनागपि मनो विकारमार्गम्।

कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन,

किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्॥ 15

निर्धूमवर्तिरपवर्जिततैलपूर:,

कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि।

गम्यो जातु मरुतां चलिताचलानां,

दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश: 16

नास्तं कदाचिदुपयासि राहुगम्य:,

स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।

नाम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभाव:,

सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके॥ 17

नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं,

गम्यं राहुवदनस्य वारिदानाम्।

विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति,

विद्योतयज्जगदपूर्वशशाङ्कबिम्बम्॥ 18

किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,

युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु तम:सु नाथ!

निष्पन्नशालिवनशालिनी जीवलोके,

कार्यं कियज्जलधरैर्जलभारनमै्र: 19

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,

नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु।

तेजः स्फ़ुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं,

नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि॥ 20

मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा,

दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।

किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,

कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि॥ 21

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,

नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।

सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मिं,

प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् 22

त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस

मादित्यवर्णममलं तमस: पुरस्तात्।

त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,

नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था: 23

त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं,

ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्गकेतुम्।

योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं,

ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्त: 24

बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात्,

त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वात्

धातासि धीर! शिवमार्ग विधेर्विधानाद्,

व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥ 25

तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ!

तुभ्यं नम: क्षितितलामलभूषणाय।

तुभ्यं नमस्त्रिजगत: परमेश्वराय,

तुभ्यं नमो जिन! भवोदधिशोषणाय॥ 26

को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्

त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !

दोषैरुपात्तविविधाश्रयजातगर्वै:,

स्वप्नान्तरेऽपि कदाचिदपीक्षितोऽसि॥ 27

उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख

माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।

स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं,

बिम्बं रवेरिव पयोधरपाश्र्ववर्ति॥ 28

सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे,

विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम्।

बिम्बं वियद्विलसदंशुलतावितानं

तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मे: 29

कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं,

विभ्राजते तव वपु: कलधौतकान्तम्।

उद्यच्छशाङ्कशुचिनिर्झरवारिधार

मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् 30

छत्रत्रयं तव विभाति शशाङ्ककान्त

मुच्चै: स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम्।

मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभं,

प्रख्यापयत्त्रिजगत: परमेश्वरत्वम्॥ 31

गम्भीरताररवपूरितदिग्विभागस्

त्रैलोक्यलोकशुभसङ्गमभूतिदक्ष:

सद्धर्मराजजयघोषणघोषक: सन्,

खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशस: प्रवादी॥ 32

मन्दारसुन्दरनमेरुसुपारिजात

सन्तानकादिकुसुमोत्करवृष्टिरुद्धा।

गन्धोदबिन्दुशुभमन्दमरुत्प्रपाता,

दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा॥ 33

शुम्भत्प्रभावलयभूरिविभाविभोस्ते,

लोकत्रयेद्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती।

प्रोद्यद्दिवाकरनिरन्तरभूरिसंख्या,

दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्॥34

स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्ट:,

सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्त्रिलोक्या:

दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्व

भाषास्वभावपरिणामगुणै: प्रयोज्य: 35

उन्निद्रहेमनवपङ्कजपुञ्जकान्ती,

पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ।

पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:,

पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति॥ 36

इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र !

धर्मोपदेशनविधौ तथा परस्य।

यादृक्प्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,

तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि॥ 37

श्च्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल,

मत्तभ्रमद्भ्रमरनादविवृद्धकोपम्।

ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं

दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्॥ 38

भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्त,

मुक्ताफलप्रकरभूषितभूमिभाग:

बद्धक्रम: क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि,

नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते॥ 39

कल्पान्तकालपवनोद्धतवह्निकल्पं,

दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिङ्गम्।

विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं,

त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम्॥ 40

रक्तेक्षणं समदकोकिलकण्ठनीलम्,

क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम्।

आक्रामति क्रमयुगेण निरस्तशङ्कस्

त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंस: 41

वल्गत्तुरङ्गगजगर्जितभीमनाद

माजौ बलं बलवतामपिभूपतीनाम्।

उद्यद्दिवाकरमयूखशिखापविद्धं

त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति॥ 42

कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह,

वेगावतारतरणातुरयोधभीमे।

युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षास्

त्वत्पादपङ्कजवनाश्रयिणो लभन्ते॥ 43

अम्भोनिधौ क्षुभितभीषणनक्रचक्र

पाठीनपीठभयदोल्वणवाडवाग्नौ।

रङ्गत्तरङ्गशिखरस्थितयानपात्रास्

त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद्व्रजन्ति 44

उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्ना:,

शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशा:

त्वत्पादपङ्कजरजोमृतदिग्धदेहा,

मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपा: 45

आपादकण्ठमुरुशृङ्खलवेष्टिताङ्गा,

गाढंबृहन्निगडकोटि निघृष्टजङ्घा:

त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजा: स्मरन्त:,

सद्य: स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति॥ 46

मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहि

संग्रामवारिधिमहोदरबन्धनोत्थम्।

तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव,

यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते॥ 47

स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्,

भक्त्या मया रुचिरवर्णविचित्रपुष्पाम्।

धत्ते जनो इह कण्ठगतामजस्रं,

तं मानतुङ्गमवशासमुपैति लक्ष्मी: 48

आचार्य मानतुंग देव


भक्तामर स्तोत्र के लाभ | Benefits of Bhaktamar Stotra PDF

भक्तामर स्तोत्र (Bhaktamar Stotra PDF) के नियमित पाठ से जीवन की विभिन्न परेशानियों से मुक्ति मिलती है। इसे धार्मिक अनुष्ठानों में, खासकर जैन धर्म के त्योहारों के दौरान पढ़ा जाता है। इसके पाठ से भक्तों की कठिनाइयाँ दूर होती हैं और उन्हें मानसिक शांति प्राप्त होती है।

भय से मुक्ति: स्तोत्र के कई श्लोकों में बताया गया है कि भगवान आदिनाथ की स्तुति करने से सभी तरह के भय समाप्त हो जाते हैं। व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में अपने भय पर विजय पा सकता है।

आध्यात्मिक उन्नति: भक्तामर स्तोत्र के पाठ से व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रगति मिलती है। इसका प्रभाव व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर सकारात्मक होता है और उसे सच्चे मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है।

मन की शांति: जो लोग मानसिक तनाव और अशांति से ग्रस्त होते हैं, वे भक्तामर स्तोत्र के नियमित पाठ से अपनी मन:स्थिति को बेहतर बना सकते हैं।

भक्तामर स्तोत्र PDF डाउनलोड | Bhaktamar Stotra PDF Download

यदि आप भक्तामर स्तोत्र PDF डाउनलोड करना चाहते हैं, तो यह आपको सभी श्लोकों के साथ एक स्थान पर पढ़ने और इसका अभ्यास करने की सुविधा देता है। इंटरनेट पर कई स्रोतों पर यह PDF उपलब्ध है, जिसे आप डाउनलोड कर सकते हैं।

  • फाइल साइज: 1 MB
  • पेज: 12
  • भाषा: संस्कृत

Bhaktamar Stotra PDF डाउनलोड करें

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निष्कर्ष | Conclusion

भक्तामर स्तोत्र न केवल एक साधारण स्तोत्र है, बल्कि यह एक मार्गदर्शक है जो जीवन की कठिनाइयों और मानसिक समस्याओं से लड़ने का साहस देता है। इसके नियमित पाठ से व्यक्ति अपने जीवन में नई ऊर्जाओं का अनुभव कर सकता है और भगवान आदिनाथ की कृपा से अपने जीवन को एक सकारात्मक दिशा में ले जा सकता है।

अगर आप भी Bhaktamar Stotra PDF की खोज में हैं, तो इसे डाउनलोड कर अपने जीवन में अध्यात्मिक लाभ प्राप्त करें और अपने जीवन को भक्ति के पथ पर अग्रसर करें।

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